MS12 सत्संग- सुधा भाग 1
प्रभु प्रेमियों !
महर्षि मेँहीँ साहित्य सीरीज की बारहवीं पुस्तक "
सत्संग- सुधा भाग 1" है । इस पुस्तक में
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज बताते हैं कि
कबीर, दादू, नानक और वेद- उपनिषदों में वर्णित विंदु-ध्यान और नाद ध्यान की बातें बिल्कुल सत्य है और जांचने पर प्रत्यक्ष है । जो कोई इंसान इसको करेगा वह हमारे ही तरह अध्यात्मिक ज्ञान में ठोस होगा। आइये इस पुस्तक का अवलोकन करते हैं--
महर्षि मेँहीँ साहित्य सीरीज की ग्यारहवीं पुस्तक "भावार्थ सहित घट रामायण-पदावली" के बारे में जानने के लिए 👉 यहां दवाएँ।
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सत्संग-सुधा भाग 1 |
सत्संग-सुधा भाग 1 में क्या है?
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प्रभु प्रेमियों ! 60 वर्षों से बिंदु-नाद की साधना करते हुए संत- साहित्य के प्रमाणों के आधार पर सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के अपने अट्ठारह प्रवचनों में सत्संग, ध्यान, ईश्वर, सद्गुरु, सदाचार एवं संसार में रहने की कला के बारे में बताये हैं। साथ ही यह भी बताया गया है कि वेद-उपनिषद एवं संत- साहित्य में वर्णित बातें बिल्कुल सत्य हैं और जांचने पर प्रत्यक्ष है। लोग इन साधनाओं को करके आप अपना इहलोक और परलोक के जीवन को सुखमय बना सकते हैं । जिन लोगों ने इसका अनुसरण किया वे धन्य धन्य हो रहे हैं ।
प्राक्कथन
'सत्संग- सुधा' में महर्षिजी महाराज के विभिन्न समयों पर दिये गये प्रवचनों का संकलन किया गया है। इसमें न कोई विषय क्रम है और न समय-क्रम ।
पूज्य महर्षिजी महाराज लगभग ६० वर्षों से उपनिषद् एवं संत-साहित्य के प्रमाणों के आधार पर विन्दु-नाद की साधना तथा उसका उपदेश कर रहे हैं।
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इन्होंने स्वयं इस साधना का दृढ़ अभ्यास किया है और उन सत्यों के साक्षात्कार करने की चेष्टा की है, जिनकी अभिव्यक्ति कबीर, दादू, नानक आदि संतों ने अपनी वाणियों में की है। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों के उपलब्ध सत्य का परीक्षण कर यह कहने में समर्थ होता है कि उपलब्ध परिणाम शत- प्रतिशत सत्य हैं, उसी भाँति महर्षिजी ने गत ६० वर्षों से अपने पूर्ववर्ती संतों की भाँति आचरण, आहार-विहार, सदाचार एवं साधना करके यह कहने की समर्थता उपलब्ध की है कि उपनिषदों और संत-साहित्य में विवेचित ज्ञान सत्य है और -साधना के माध्यम से दृढ़ ध्यानाभ्यास करके उन नाद - विन्दु-र सत्यों का साक्षात्कार किया जा सकता है। इस संग्रह के प्रवचनों में भी महर्षिजी की समाधि - साधना के अनुभव अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हैं। यद्यपि इन प्रवचनों में किसी नवीन विषय का प्रतिपादन नहीं किया गया है, तथापि इनकी शैली एकदम मौलिक एवं अभूतपूर्व है। इन विशेषाताओं का कारण महर्षिजी की दृढ़ साधना है।
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मर्म-चिन्तन
पंच विषयों के भ्रामक सुख में जीवों को असीम काल से आबद्धकारिणी माया ने धर्म और ईश्वर भक्ति के नाम पर भी गोस्वामी तुलसीदासजी वर्णित 'माया कटक प्रचंड' को नियोजित कर दिया है। महामाया की इस आश्चर्यमयी छद्मलीला ने सदाचारी सुभक्तों और बुद्धिशील विवेचकों को भी अपने सौंदर्य और रस की मादकता से अभिभूत कर रखा है। भगवान के पूर्णावतार श्रीकृष्णजी यद्यपि ऋषि-मुनि मनोहारिणी, परमशक्तिशालिनी एवं विश्वव्यापिनी वाणी ( श्रीमद्भगवद्गीता ) में यह उद्घोषित कर दिया है- 'क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ; ये दोनों भिन्न हैं।' 'क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम; ये तीन प्रकार के पुरुष हैं।' मेरा तो उत्तमोत्तम यानी सबसे उत्तम (पुरुषोत्तम ) स्वरूप है, वह अज है यानी न कभी उसका जन्म हुआ और न कभी होगा ही, वह अनन्त है अर्थात् प्रकृतिजन्य देश और काल में जितना और जो विस्तृतत्व है, उससे भी वह परे है, वह अव्यय है यानी शाश्वत है, एकरस, एक ही एक, जिसमें कुछ भी व्यय नहीं होता और न हो ही सकता है ऐसा है और वह भाव से परे है, भाव यानी सत् अक्षर पुरुष- सच्चिदानंद तत्त्व से भी परे है अर्थात् उत्कृष्ट ।
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इस भाँति मैं स्वरूपतः अव्यक्त ही हूँ; अव्यक्त यानी मैं अपने अतिरिक्त और किसी के भी द्वारा देखने की शक्ति से परे हूँ अर्थात् मैं केवल आत्मगम्य हूँ। ऐसा जो मैं हूँ, उसको अबुद्धिशील यानी बुद्धिहीन लोग व्यक्त प्रकट मानते-समझते हैं; व्यक्त यानी इन्द्रियगोचर ।' भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी वाणी के रहते हुए भी माया के मद-मोहक आदेश से विवेकशील भक्त भी इन्द्रियगोचर रूप की भक्ति को ही पूर्ण भक्ति मानते हैं। और अपनी भावना और विचारणा की तुष्टि के लिए भगवद्द्वाणी के विरुद्ध अन्यों को उपदेश करने लगते हैं कि 'भगवदवतार के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में तात्त्विक एकता है-भेद नहीं है।'
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ऐसे प्रेमी भावुक भक्त भी सभी मानवों की भाँति ईश्वरीय विधानवश मायाकृत आवागमन के चक्र से मुक्त हो सकें और परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का बौद्धिक ज्ञान प्राप्त कर पूर्ण भक्त का आश्रय ले अपनी भक्ति को पूरी कर सकें- इसी ख्याल को ध्यान में रखकर अखिल भारतीय संतमत सत्संग प्रकाशन समिति ने पूज्यपाद महर्षिजी के सभी अमृत- भरे प्रवचनों का संग्रह पुस्तकाकार में प्रकाशित करने का निश्चय किया है। ये प्रवचन अध्यात्म-ज्ञान, प्रेम और आनंद के सुधा-सदृश ही श्रोतागण के अंतःकरणों का सिंचन और पवित्रीकरण करते हैं; क्योंकि इसमें अनुभवज्ञान की साक्षात् शक्ति क्रियाशील होकर प्रेरणा के रूप में जीवन्त रहती है। महर्षिजी महाराज के सत्संग में यही सुधा-पान करने का सौभाग्य साधकगण प्राप्त करते हैं। इसीलिए इसे 'सत्संग-सुधा' कहकर जानना ही योग्य है।
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महर्षिजी का कथन है- 'ईश्वर किसी शरीर को धारण किए हुए हैं - एक ख्याल यह है। दूसरा ख्याल यह है कि ईश्वर है, किन्तु उनको शरीर नहीं है।' 'अनाम में कम्प और शब्द; दोनों लय को प्राप्त हो जाते हैं। अनाम से आगे कुछ और है या सृष्टि के अंदर अनाम है- इसको कोई नहीं मान सकता। वही अनाम सबसे ऊँचा पद है।'
. साधकगण, श्रोता और अध्येता इन वाणियों में समाधि जन्य ज्ञान के अचल और शक्तिशाली विश्वास का बोध करके स्वयं भी इस श्रद्धा से अनुप्राणित हो जाते हैं। मानव मात्र इस ज्ञान के अधि कारी हैं। सभी सरल, सुबोध भारती भाषा में यथार्थ धर्म- संतमत अर्थात् वास्तविक अध्यात्म-ज्ञान को सुलभता से प्राप्त कर सकें, इसी विचार के अनुसार इस प्रकाशन के द्वारा खंड-खंड रूप में इस सुधा- प्रसारण का काम होगा। प्रेमीगण सुलभ मूल्य में इसे खरीद सकें-ऐसा विशेष प्रयत्न है।
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Last cover |
आश्विन शुक्ल अष्टमी सं० २०२३ वि०
विनीत
अ० भा० संतमत सत्संग प्रकाशन समिति
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प्रभु प्रेमियों ! अन्य साहित्य सीरीज के इस पोस्ट का पाठ करके आप लोगों ने जाना कि 👉 महर्षि मेँहीँ प्रवचन, सत्संग सुधा, ईश्वर कैसा है? जीव किसे कहते हैं? संतमत प्रवचन, ध्यान क्या है? ध्यान कैसे करें? मनुष्य जीवन का महत्व, शांति प्रप्ति का सार्थक उपाय, भक्ति क्या है? maharshi menheen pravachan, maharshi menhee pravachan, maharshi menhee baaba ka pravachan, maharshi menhee daas ka pravachan, maharshi menhee daas ka pravachan sunaie, इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई संका या प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बताएं, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग के सदस्य बने। इससे आप आने वाले हर पोस्ट की सूचना आपके ईमेल पर नि:शुल्क भेजा जायेगा। ऐसा विश्वास है .जय गुरु महाराज.!!
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