प्रभु प्रेमियों ! महर्षि मेँहीँ साहित्य सीरीज की आठवीं पुस्तक "मोक्ष-दर्शन" है । इस पुस्तक में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराजबताते हैं कि ईश्वर के ज्ञान की वृद्धि से क्या लाभ होता है? भगवान के ध्यान चार ज्ञान कौन से हैं? ईश्वर के उपदेश से ज्ञान में वृद्धि होती है। ज्ञानयोग का ग्रन्थ कौन सा है? गीता के अनुसार ज्ञान योग क्या है? कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग क्या है? ज्ञान योग का अर्थ क्या है? ईश्वर के अर्थ को बताने वाला और भगवान को समझाने वाला पीडीएफ और ओरिजिनल बुक है । आइए मुक्त संबंधी बातों को क्रमानुसार समझने के लिए मोक्ष दर्शन पुस्तक का दर्शन करें।
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ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति
ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति
प्रभु प्रेमियों ! "ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति" नामक इस लघुपुस्तिका में: ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को समझाया गया है और भक्ति कैसे करनी चाहिए? इसकी जानकारी के साथ-साथ नित्य सुबह शाम की जाने वाले स्तुति-प्रार्थना और कुछ भजनों का भी समावेश इस पुस्तिका में किया गया है . जिसे आप हमेशा पॉकेट में रख कर रोजाना के स्तुति पाठ को शुद्धि पूर्वक कर सकें.
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ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति
संतमत में ईश्वर की स्थिति का बहुत दृढ़ता के साथ विश्वास है ; परन्तु उस ईश्वर को इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं बताया गया है । वह स्वरूपतः अनादि और अनंत है , जैसा कि संत सुन्दरदासजी ने कहा है-
व्योम को व्योम अनंत अखण्डित ,
आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है ।
किसी अनादि और अनंत पदार्थ का होना बुद्धि - संगत प्रतीत होता है । मूल आदि तत्त्व कुछ अवश्य है । वह मूल और आदि तत्त्व परिमित हो ससीम हो , तो सहज ही यह प्रश्न होगा कि उसके पार में क्या है ? ससीम को आदि तत्त्व मानना और असीम को आदि तत्त्व न मानना हास्यास्पद होगा ।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ॥
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अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सब दरसी अनवय अजीता ।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख संदोहा ॥
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ॥
उपर्युक्त चौपाइयों में मूल आदि तत्त्व का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने किया है । संतों ने उसे ही परमात्मा माना है । गुरु नानकदेवजी ने कहा है-
अलख अपार अगम अगोचरि,
ना तिसु काल न करमा ।
जाति अजाति अजोनी सम्भउ,
ना तिसु भाउ न भरमा ॥
साचे सचिआर विटहु कुरवाणु,
ना तिसु रूप बरनु नहि रेखिआ ।
साचे सबदि नीसाणु ॥
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संतों का यह विचार है कि जो सबसे महान है , जो सीमाबद्ध नहीं है , उससे कोई विशेष व्यापक हो , सम्भव नहीं है । जो व्यापक - व्याप्य को भर कर उससे बाहर इतना विशेष है कि जिसका पारावार नहीं है , वही सबसे विशेष व्यापक तथा सबसे सूक्ष्म होगा । यहाँ सूक्ष्म का अर्थ ' छोटा टुकड़ा ' नहीं है , बल्कि ' आकाशवत् सूक्ष्म ' है । जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है , उसको स्थूल या सूक्ष्म इन्द्रियों से जानना असम्भव है ।
वह ईश्वर आत्मगम्य है । केवल चेतन - आत्मा से जाना जाता है । शरीर के भीतर आप चेतन - आत्मा हैं और उस आत्मा से जो प्राप्त होता है , उसी को परमात्मा कहते हैं । रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द ; इन पाँचों में से प्रत्येक को ग्रहण करने के लिए जो - जो इन्द्रिय हैं अर्थात् आँख से रूप , जिभ्या से रस , नासिका से गन्ध , त्वचा से स्पर्श और कान से शब्द ; इन इन्द्रियों के अतिरिक्त और किसी से ये पाँचो विषय ग्रहण नहीं किए जाते हैं । इसी प्रकार जो चेतन - आत्मा के अतिरिक्त और किसी से नहीं पकड़ा जाय , वही परमात्मा है ।
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प्रभु प्रेमियों ! ईश्वर स्वरूप को ठीक से समझे बिना जीवनभर सुख शान्ति के लिए ईश्वर भक्ति के नाम पर किया जानेवाला सारा श्रम निष्फल ही चला जाता है ।
नावं न जानै गाँव का , कहो कहाँ को जाँव ।
चलते चलते जुग गया , पाँव कोस पर गाँव ॥
(संत कबीर साहब)
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ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति
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